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मानसरोवर--मुंशी प्रेमचंद जी


बेटों वाली विधवा मुंशी प्रेम चंद

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तीन महीने और गुजर गये। माँ के गहनों पर हाथ साफ़ करके चारों भाई उसकी दिलजोई करने लगे थे। अपनी स्त्रियों को भी समझाते थे कि उसका दिल न दुखायें। अगर थोड़े-से शिष्टाचार से उसकी आत्मा को शांति मिलती है, तो इसमें क्या हानि है। चारों करते अपने मन की, पर माता से सलाह ले लेते या ऐसा जाल फैलाते कि वह सरला उनकी बातों में आ जाती और हरेक काम में सहमत हो जाती। बाग़ को बेचना उसे बहुत बुरा लगता था;लेकिन चारों ने ऐसी माया रची कि वह उसे बेचने पर राजी हो गयी, किन्तु कुमुद के विवाह के विषय में मतैक्य न हो सका। माँ पं. मुरारीलाल पर जमी हुई थी, लड़के दीनदयाल पर अड़े हुए थे। एक दिन आपस में कलह हो गयी।
फूलमती ने कहा- माँ-बाप की कमाई में बेटी का हिस्सा भी है। तुम्हें सोलह हज़ार का एक बाग़ मिला, पच्चीस हज़ार का एक मकान। बीस हज़ार नकद में क्या पाँच हज़ार भी कुमुद का हिस्सा नहीं है?
कामता ने नम्रता से कहा- अम्माँ, कुमुद आपकी लड़की है, तो हमारी बहन है। आप दो-चार साल में प्रस्थान कर जायेंगी; पर हमारा और उसका बहुत दिनों तक संबंध रहेगा। तब हम यथाशक्ति कोई ऐसी बात न करेंगे, जिससे उसका अमंगल हो; लेकिन हिस्से की बात कहती हो, तो कुमुद का हिस्सा कुछ नहीं। दादा जीवित थे, तब और बात थी। वह उसके विवाह में जितना चाहते, खर्च करते। कोई उनका हाथ न पकड़ सकता था; लेकिन अब तो हमें एक-एक पैसे की किफायत करनी पड़ेगी। जो काम हज़ार में हो जाये, उसके लिए पाँच हज़ार खर्च करना कहाँ की बुद्धिमानी है?
उमानाथ से सुधारा- पाँच हज़ार क्यों, दस हज़ार कहिए।
कामता ने भवें सिकोड़कर कहा- नहीं, मैं पाँच हज़ार ही कहूँगा; एक विवाह में पाँच हज़ार खर्च करने की हमारी हैसियत नहीं है।
फूलमती ने ज़िद पकड़कर कहा- विवाह तो मुरारीलाल के पुत्र से ही होगा, पाँच हज़ार खर्च हों, चाहे दस हजार। मेरे पति की कमाई है। मैंने मर-मरकर जोड़ा है। अपनी इच्छा से खर्च करूँगी। तुम्हीं ने मेरी कोख से नहीं जन्म लिया है। कुमुद भी उसी कोख से आयी है। मेरी आँखों में तुम सब बराबर हो। मैं किसी से कुछ माँगती नहीं। तुम बैठे तमाशा देखो, मैं सब-कुछ कर लूँगी। बीस हज़ार में पाँच हज़ार कुमुद का है।
कामतानाथ को अब कड़वे सत्य की शरण लेने के सिवा और मार्ग न रहा। बोला- अम्माँ, तुम बरबस बात बढ़ाती हो। जिन रुपयों को तुम अपना समझती हो, वह तुम्हारे नहीं हैं; तुम हमारी अनुमति के बिना उनमें से कुछ नहीं खर्च कर सकती।
फूलमती को जैसे सर्प ने डस लिया- क्या कहा! फिर तो कहना! मैं अपने ही संचे रुपये अपनी इच्छा से नहीं खर्च कर सकती?
‘वह रुपये तुम्हारे नहीं रहे, हमारे हो गये।‘
‘तुम्हारे होंगे; लेकिन मेरे मरने के पीछे।‘
‘नहीं, दादा के मरते ही हमारे हो गये!’
उमानाथ ने बेहयाई से कहा- अम्माँ, क़ानून-कायदा तो जानतीं नहीं, नाहक उछलती हैं।
फूलमती क्रोध-विह्वल रोकर बोली- भाड़ में जाये तुम्हारा क़ानून। मैं ऐसे क़ानून को नहीं जानती। तुम्हारे दादा ऐसे कोई धन्नासेठ नहीं थे। मैंने ही पेट और तन काटकर यह गृहस्थी जोड़ी है, नहीं आज बैठने की छाँह न मिलती! मेरे जीते-जी तुम मेरे रुपये नहीं छू सकते। मैंने तीन भाइयों के विवाह में दस-दस हज़ार खर्च किये हैं। वही मैं कुमुद के विवाह में भी खर्च करूँगी।
कामतानाथ भी गर्म पड़ा- 'आपको कुछ भी खर्च करने का अधिकार नहीं है।'
उमानाथ ने बड़े भाई को डाँटा- 'आप खामख्वाह अम्माँ के मुँह लगते हैं भाई साहब! मुरारीलाल को पत्र लिख दीजिए कि तुम्हारे यहाँ कुमुद का विवाह न होगा। बस, छुट्टी हुई। कायदा-क़ानून तो जानतीं नहीं, व्यर्थ की बहस करती हैं।'
फूलमती ने संयमित स्वर में कहा- 'अच्छा, क्या क़ानून है, जरा मैं भी सुनूँ।'
उमा ने निरीह भाव से कहा- 'क़ानून यही है कि बाप के मरने के बाद जायदाद बेटों की हो जाती है। माँ का हक केवल रोटी-कपड़े का है।'
फूलमती ने तड़पकर पूछा- 'किसने यह क़ानून बनाया है?'
उमा शांत स्थिर स्वर में बोला- 'हमारे ऋषियों ने, महाराज मनु ने, और किसने?'
फूलमती एक क्षण अवाक रहकर आहत कंठ से बोली- 'तो इस घर में मैं तुम्हारे टुकड़ों पर पड़ी हुई हूँ?'
उमानाथ ने न्यायाधीश की निर्ममता से कहा- 'तुम जैसा समझो।'

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